Gwalior Bairagi Sadhu: रानी लक्ष्मीबाई की पार्थिव देह बचाने के लिए 745 संतों ने दिया था बलिदान, यहां पढ़ें पूरी कहानी
Gwalior Bairagi Sadhu: ग्वालियर। मध्यप्रदेश का ग्वालियर जिला ऐतिहासिक रूप से अपनी एक अलग पहचान रखता है। यहां एक ओर तो कई राजाओं का शासन रहा तो वहीं दूसरी तरफ धार्मिक रूप से भी देश के पटल पर ग्वालियर की अलग छवि अंकित है। यहां ज्ञान की देवी सरस्वती की आराधना करने वाले संत अवश्यकता पड़ने पर मां चण्डी के शिष्य बनने में भी समय नहीं लगाते थे। इस बात का उदाहरण आज भी ग्वालियर के गलियारों में चर्चित है। झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की पार्थिव देह को अंग्रेजो के हाथ न लगने देने के लिए यहां के साधुओं ने जो खूनी संघर्ष किया।, उस वीर गाथा की कहानियां आज भी लोगों को सुनाई जाती हैं।
745 साधुओं ने दी थी अपने प्राणों की आहुति
प्रथम स्वाधीनता संग्राम में रानी लक्ष्मी बाई की पार्थिव देह और फिरंगियों के बीच निर्मोही अखाड़े के 745 संत (Gwalior Bairagi Sadhu) दीवार बनकर खड़े हो गये। इन संतों ने अपने युद्ध कौशल से अंग्रेजों को बड़ी शाला में घुसने से रोकने के लिए कई घंटों तक सघर्ष करते हुए अपना बलिदान दिया। इन संतों की समाधियां गंगादास की बड़ी शाला में हैं।
आज तो हम हैं, कल कौन बताएगा?
गंगादास शाला के महंत पीठेश्वर रामसेवक दास महाराज ने बताया कि आजादी की लड़ाई में गंगादास की बड़ी शाला संतों के खून से लाल हो गई थी। अंग्रेजों के हाथ में रानी का पार्थिव शरीर नहीं केवल चिता की राख ही लगी थी। इन्ही वीर संतों की स्मृति में प्रतिवर्ष श्रीमद भागवत कथा का आयोजन बलिदान दिवस से सात दिन पूर्व किया जाता है। संतों के हथियार आज भी गंगादास की शाला में सुरक्षित हैं। बस दुख इस बात का है कि कई सरकारों ने इन संतों का बलिदान स्मारक बनाने का वादा किया, किंतु यह वादा आज तक पूरा नहीं हुआ। द्रवित शब्दों में महाराज ने कहा कि इस वीर गाथा को बताने के लिए आज तो हम हैं लेकिन हमारे बात कौन इन बातों को दोहराएगा। इसलिए भी आने वाली पीढ़ी के ज्ञानवर्धन के लिए भी उन बलिदानी साधुओं (Gwalior Bairagi Sadhu) का बलिदान स्मारक बनाया जाना चाहिए।
क्या कहता है इतिहास
इतिहास की कई किताबो के पन्नों में दर्ज है कि रानी लक्ष्मी बाई 'प्राण ले लूंगी या दे दूंगी, लेकिन अपनी झांसी नहीं दूंगी' संकल्प के साथ अंग्रेजों के साथ युद्ध करते हुए अपने भरोसेमंद सैनिकों के साथ ग्वालियर पहुंची थी। फूलबाग के पास स्वर्ण रेखा नदी के किनारे पर घोड़ा फंस जाने के कारण रानी गंभाीर से घायल हो गईं। रानी घोड़े से नीचे गिर गईं। तभी उनके एक सैनिक ने अपने घोड़े से कूद कर उन्हें अपने हाथों में उठा लिया और महंत गंगादास के मठ में ले लाया। रानी तब तक जीवित थीं।
घायल रानी की स्थिति देखकर महंत गंगादास को इस बात का अंदाजा हो गया था कि अब रानी के प्राण बचना मुश्किल हैं। उन्होंने रानी के मुख में गंगाजल डाला। रानी बहुत बुरी हालत में थीं, धीरे-धीरे वो अपने होश खो रही थीं। उधर, मंदिर के अहाते के बाहर लगातार फायरिंग चल रही थी। दामोदर को सुरक्षित स्थान पर ले जाने के साथ ही उन्होंने कहा कि इस देह को अंग्रेजों के अपवित्र हाथ नहीं लगने देना चाहिए। इन शब्दों के साथ रानी ने अपने प्राण त्याग दिये। उधर, बैरागी साधुओं (Gwalior Bairagi Sadhu) ने रानी के लिए अंतिम प्रार्थना करनी शुरू कर दी थी।
जब तक चिता पूरी नहीं जली, तब तक डटे रहे साधु
महाराज बताते हैं कि महंत का आदेश मिलते ही साधुओं ने तत्काल रानी लक्ष्मीबाई की चिता तैयार की और उनका अंतिम संस्कार किया। मठ के बाहर से अंग्रेज सैनिक गोलियां बरसा रहे थे और अंदर से बैरागी साधू उन पर जवाबी हमला कर रहे थे। धीरे-धीरे अंदर से रायफलें शांत हो गई। जब अंग्रेज मठ के अंदर घुसे तो वहां से कोई आवाज नहीं आ रही थी। सब कुछ शांत था। वहां रानी लक्ष्मीबाई के सैनिकों और पुजारियों के कई रक्तरंजित शव पड़े हुए थे। एक भी आदमी जीवित नहीं बचा था। उन्हें सिर्फ एक शव की तलाश थी। तभी उनकी नजर एक चिता पर पड़ी, जिसकी लपटें अब धीमी पड़ रही थीं। उन्होंने अपने बूट से उसे बुझाने की कोशिश की, तभी उन्हें मानव शरीर के जले हुए अवशेष दिखाई दिए। रानी की हड्डियां जलकर लगभग राख बन चुकी थीं।
संतों के हथियार आज भी हैं सुरक्षित
गंगादास शाला के महंत पीठेश्वर रामसेवक दास महाराज ने बताया कि संतों के हथियार आज भी गंगादास की शाला में सुरक्षित हैं। बस दुख इस बात का है कि कई सरकारों ने इन संतों का बलिदान स्मारक बनाने का वादा किया, किंतु यह वादा आज तक पूरा नहीं हुआ। वे चाहते हैं कि यह वादा शीघ्रातिशीघ्र पूरा हो।
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